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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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प्रभाकर राव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृत्तांत उन्हें लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए।

म्युनिसपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए लगभग तीन मास बीत गए, पर उसकी तरमीम के विषय में तेगअली ने जो शंकाए प्रकट की थीं, वह निर्मूल प्रतीत हुईं। न दालमंडी के कोठों पर दुकानें ही सजीं और न वेश्याओं ने निकाह-बंधन से ही कोई विशेष प्रेम प्रकट किया! हां, कई कोठे खाली हो गए। उन वेश्याओं ने भावी निर्वासन के भय से दूसरी जगह रहने का प्रबंध कर लिया। किसी कानून का विरोध करने के लिए उससे अधिक संगठन की आवश्यकता होती है, जितनी उसके जारी करने के लिए। प्रभाकर राव का क्रोध शांत होने का यह एक और कारण था।

पद्मसिंह ने इस प्रस्ताव को वेश्याओं के प्रति घृणा से प्रेरित होकर हाथ में लिया था। पर अब इस विषय पर विचार करते-करते उनकी घृणा बहुत कुछ दया और क्षमा का रूप धारण कर चुकी। इन्हीं भावों ने उन्हें तरमीम से सहमत होने पर बाध्य किया था। सोचते, यह बेचारी अबलाएं अपनी इंद्रियों में, सुख-भोग में अपना सर्वस्व नाश कर रही हैं। विलास-प्रेम की लालसा ने उनकी आंखें बंद कर रखी हैं। इस अवस्था में उनके साथ दया और प्रेम की आवश्यकता है। इस अत्याचार से उनकी सुधारक शक्तियां और भी निर्बल हो जाएंगी और जिन आत्माओं का हम उपदेश से, प्रेम से, ज्ञान से, शिक्षा से उद्धार कर सकते हैं, वे सदा के लिए हमारे हाथ से निकल जाएंगी। हम लोग जो स्वयं माया-मोह के अंधकार में पड़े हुए हैं, उन्हें दंड देने का कोई अधिकार नहीं रखते। उनके कर्म ही उन्हें क्या कम दंड दे रहे हैं कि यह अत्याचार करके उनके जीवन को और भी दुखमय बना दें।

हमारे मन के विचार कर्म के पथदर्शन होते हैं। पद्मसिंह ने झिझक और संकोच को त्यागकर कर्मक्षेत्र में पैर रखा। वही पद्मसिंह जो सुमन के सामने भाग खड़े हुए थे, अब दिन दोपहर दालमंडी के कोठों पर बैठे दिखाई देने लगे। उन्हें अब लोकनिंदा का भय न था। मुझे लोग क्या कहेंगे, इसकी चिंता न थी। उनकी आत्मा बलवान हो गई थी, हृदय में सच्ची सेवा का भाव जाग्रत हो गया था। कच्चा फल पत्थर मारने से भी नहीं गिरता, किंतु पककर आप-ही-आप धरती की ओर आकर्षित हो जाता है। पद्मसिंह के अंतःकरण में सेवा का, प्रेम का भाव परिपक्व हो गया था।

विट्ठलदास इस विषय में उनसे पृथक हो गए। उन्हें जन्म की वेश्याओं के सुधार पर विश्वास न था। सैयद शफकतअली भी, जो इसके जन्मदाता थे, उनसे कन्नी काट गए और कुंवर साहब को तो अपने साहित्य, संगीत और सत्संग से ही अवकाश न मिलता था, केवल साधु गजाधर ने इस कार्य में पद्मसिंह का हाथ बंटाया। उस सदुद्योगी पुरुष में सेवा का भाव पूर्ण रूप से उदय हो चुका था।

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